भावभीनी श्रद्धांजलि - श्रद्धेय श्री सीता शरण सिंह चौहान - कालपथ: विश्व की ताजातरीन खबरें, ब्रेकिंग अपडेट्स और प्रमुख घटनाएँ

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भावभीनी श्रद्धांजलि - श्रद्धेय श्री सीता शरण सिंह चौहान

श्री सीता शरण सिंह

जन्म: 2 जनवरी 1930

स्वर्गारोहण: 13 मार्च 2025

कुल आयु: 95 वर्ष

श्री सीताशरण सिंह चौहान जी – एक युग का अवसान, ज्ञान-दीप सदा प्रज्वलित रहेगा
"मेंहदी वाटे रंग मिलै, वाटे चुके जजात। वाटे मिली पुण्य है, सीता रामप्रसाद।।"

"संसार सागरं दुस्तरं, कश्चिदेव तरिष्यति। साधवः पारमार्थिकाः, येषां जीवनं प्रेरणामयम्।।"

साहित्य-संस्कृति के उज्ज्वल नक्षत्र, लोकचेतना के अमर संवाहक एवं समाजोत्थान के दिव्य पथिक श्रद्धेय श्री सीताशरण सिंह चौहान जी के 13 मार्च 2025 को प्रातः 8 बजे ब्रह्मलीन होने से साहित्य जगत शोकाकुल है। उनके महाप्रयाण से न केवल एक देह विलीन हुई, अपितु एक विचारधारा, एक दर्शन और एक संस्कृति का अवसान हो गया। उनके निधन से शिक्षा, साहित्य, संस्कृति और समाजसेवा के एक गौरवशाली युग का समापन हो गया। यह क्षति केवल एक परिवार की नहीं, अपितु संपूर्ण समाज, साहित्य एवं लोकपरंपरा की है, जिसकी पूर्ति निकट भविष्य में संभव नहीं दिखती। उनकी दिव्य कृतियाँ, ओजस्वी वाणी और युगबोधपूर्ण चिंतन अनगिनत पीढ़ियों को प्रेरित करते हुए युगों तक अमर रहेंगे। वे केवल एक व्यक्ति नहीं थे, बल्कि एक जीवंत प्रेरणा थे, जिन्होंने अपने ज्ञान, कर्तव्यनिष्ठा, करुणा और सदाचार से अनगिनत जीवन आलोकित किए। उनके जाने से जो शून्य उत्पन्न हुआ है, वह दीर्घकाल तक अनुभव किया जाएगा। श्रद्धांजलि: एक युग का अवसान, साहित्य-संस्कृति के महायोद्धा को नमन!

जीवन यात्रा: तपस्या, त्याग और समर्पण की गाथा – एक आदर्श जीवन का प्रतिबिम्ब

सीधी जिले की माटी में जन्मे श्री चौहान जी का जीवन त्याग, तपस्या और लोक-समर्पण की त्रिवेणी था। 2 जनवरी 1930 को एक साधारण परिवार में जन्म लेने के बाद भी उन्होंने असाधारण बनने का संकल्प लिया। उनका प्रारंभिक जीवन अभावों से घिरा था, परन्तु ज्ञान और सेवा की अटूट लालसा ने उन्हें सदैव प्रेरित किया। उन्होंने गरीबी को शिक्षा प्राप्ति के मार्ग में कभी बाधा नहीं बनने दिया, बल्कि उसे अपनी शक्ति बनाया। 12 फरवरी सन 1952 में आपकी नियुक्ति सहायक शिक्षक के रूप में प्राथमिक विद्यालय राजावर नौगई, केन्द्र लमसरई में हुई। शोभ बुनियादी प्रशिक्षण सीधी से प्राप्त किया। अन्त में 60 वर्ष की आयु में आप मा.बि. तेन्दुहा से शिक्षक पद से 02 जनवरी सन 1990 को सेवानिवृत्त हुए। कविता लेखन की ओर आपका रुझान बचपन से ही रहा और अध्यापन कार्य एवं सामाजिक दायित्वों के निर्वहन में व्यस्तता के कारण आपकी रचनाएँ कुछ विलंब से हिन्दी पाठकों के बीच आ पायीं। अध्यापन कार्य के साथ कविता लेखन, चौपड़-क्रीड़ा, भूमि की पैमाइश, प्रात सामाजिक झगड़ों, विवादों के समाधान जैसे कार्यों में आपकी गहरी रुचि और पैठ थी, जिसके कारण आप जितने व्यस्त रहे, उतने ही लोकप्रिय और चर्चित रहे। उनके इस स्वभाव के बारे में उन्होंने स्वयं कहा था, "सृजन कर्म अत्यन्त दुष्कर है। यह भली भांति जानते हुए, जीवन के अंतिम पड़ाव में कविताओं के प्रकाशन का कार्य मेरे जैसे अकिंचन के द्वारा पुस्तक के रूप में साहित्यानुरागी प्रबुद्ध जनों तक पहुंच पाए यह दैव संयोग मानकर प्रभु एवं माँ दुर्गा परमेश्वरी की अहैतु की कृपा मानता हूं। यद्यपि विद्यार्थी जीवन से शिक्षकीय जीवन की यात्रा तक हृदय में उठने वाले भावों को कागज के पन्नों में अंकित करता रहा, किन्तु कभी उन लिखे हुए भावों को प्रकाशन एवं संग्रहण करने की भावना मेरे मन में नही उठी। सामयिक परिस्थितियों के अनुसार मन में उठने वाली अनन्त भावनाओं का संयोजन कर लिपिबद्ध करता। यह प्रमादी स्वभाव एवं सामाजिक, व्यवहारिक, व्यस्तताओं के कारण हो नही पाया। सामाजिक जीवन यात्रा निरंतर गतिशील रही। साहित्य और कविता सृजन की भावपूर्ण भावना को पांसा (चौसर) जमीन की नाप जोख, स्थानीय पारिवारिक विवादों का निपटान जैसे सामाजिक कार्य ने ले लिया। इस कार्य में मन इतना निमग्न हुआ कि इस दल-दल से नही निकल पाया। तत्कालीन समय में समाजिक व्यवस्था की यह बड़ी उपलब्धि मानी जाती थी। इस कार्य में काफी नाम चला, शिक्षक होने के नाते समाज पहले से आदर सम्मान देता था। किन्तु इस शौक ने उसे और बढ़ा दिया । प्रपंचादिक कार्य एवं व्यस्तताओं ने कविता सृजन की मनः स्थिति की लगभग भुला दिया था। लेकिन हृदय में कल्पना और विचार का तालमेल निरंतर चलता रहा। कागज के चिटों पर कभी दोहा, सवैया, कुण्डलिया लिखकर तकिया के नीचे रखता गया। या केंहू कि तक्रिया या सिरहाने चढ़ाता गया। मन की बात कहने में अत्यधिक संकोच हो रहा है। एक कहत मोहि सकुचि अति, कविता सूजन के महत्व, लेखन और दोष से भली-भांति परिचित होने के कारण प्रकाशन कराने का विचार मन में कभी उत्पन्न ही नहीं हुआ"। उनका सम्पूर्ण जीवन तपस्या, त्याग और समर्पण की एक प्रेरणादायक गाथा है, जो आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेगी। उन्होंने सिद्ध किया कि दृढ़ संकल्प और अटूट परिश्रम से साधारण मनुष्य भी असाधारण कार्य कर सकता है।

साहित्य, संस्कृति एवं विचारधारा के स्तंभ: एक बहुआयामी व्यक्तित्व

श्रद्धेय सीताशरण सिंह चौहान जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने अपने ओजस्वी साहित्य एवं तेजस्वी विचारों से बघेली भाषा, भारतीय संस्कृति और लोकधर्मी चेतना को अनुपम गरिमा प्रदान की। वे केवल एक साहित्यकार नहीं थे, अपितु जनसंवाद के पुरोधा, लोकमंगल के सिद्धपुरुष, और संस्कृति के पुनर्जागरणकर्ता थे। उन्होंने समाज को जागृत करने और उसे नई दिशा देने का कार्य किया। उनकी साहित्यिक साधना ने न केवल शब्दों को जीवन प्रदान किया, अपितु विचारों को आकाश, समाज को आधार, और संस्कृति को नई ऊँचाइयाँ दीं। उन्होंने आस-पास के लोगों से "मास्टर साहब" के रूप में स्नेह और सम्मान प्राप्त किया। वे सही मायने में साहित्य, संस्कृति और विचारधारा के स्तंभ थे।

"मनुष्य का जीवन यश से अमर होता है, शब्दों से इतिहास रचा जाता है, और विचारों से समाज संवरता है।" - उनके ये शब्द उनके जीवन-दर्शन को स्पष्ट रूप से व्यक्त करते हैं।

शिक्षा और समाज में अविस्मरणीय योगदान: परिवर्तन के उत्प्रेरक

1952 में सहायक शिक्षक के रूप में नियुक्ति से लेकर सेवानिवृत्ति तक, उन्होंने शिक्षा को मात्र जीविकोपार्जन का साधन नहीं माना, बल्कि उसे समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाने का एक सशक्त माध्यम बनाया। उन्होंने न केवल पाठ्यक्रम पर ध्यान केंद्रित किया, बल्कि अपने विद्यार्थियों के चरित्र-निर्माण में भी गहरी रुचि ली। शिक्षा के क्षेत्र में उनका अमूल्य योगदान अविस्मरणीय है:

  • उन्होंने हजारों छात्रों को शिक्षा की ओर प्रेरित किया और उन्हें बेहतर नागरिक बनने के लिए मार्गदर्शन दिया।
  • उन्होंने शिक्षा में संस्कृति और नैतिकता का समन्वय स्थापित किया, जिससे छात्रों का सर्वांगीण विकास हो सके।
  • उन्होंने गरीब एवं वंचित बच्चों के लिए निःशुल्क शिक्षा अभियान चलाया, ताकि कोई भी बच्चा शिक्षा से वंचित न रहे।
  • उन्होंने समाज में शिक्षण को एक मिशन का रूप दिया और लोगों को शिक्षा के महत्व के बारे में जागरूक किया।
  • उन्होंने शिक्षा के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों को दूर करने का प्रयास किया और समाज को प्रगति की राह पर अग्रसर किया।

उनकी कक्षाएँ केवल विद्या का मंदिर नहीं थीं, बल्कि नैतिकता, अनुशासन और मानवता के संगम स्थल थीं। वे विद्यार्थियों को केवल किताबी ज्ञान नहीं देते थे, बल्कि उन्हें जीवन के मूल्यों और आदर्शों के बारे में भी बताते थे। आज उनके पढ़ाए हुए विद्यार्थी देश-विदेश में शिक्षा, प्रशासन और समाज सेवा के क्षेत्र में सफलता के शिखर छू रहे हैं। वे न केवल शिक्षक थे, बल्कि एक मार्गदर्शक, संरक्षक और आदर्श भी थे। उन्होंने अपने छात्रों के जीवन में सकारात्मक बदलाव लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे सही मायने में परिवर्तन के उत्प्रेरक थे।

साहित्य के आकाश में देदीप्यमान नक्षत्र: कालजयी रचनाकार

श्री चौहान जी एक सिद्धहस्त कवि और लेखक भी थे। उनकी लेखनी से समाज को नई दिशा दी। उनकी लेखनी केवल शब्दों का संग्रह नहीं थी, बल्कि समाज को दिशा देने का एक सशक्त माध्यम थी। उनकी कविताएँ, कहानियाँ, निबंध और लेख समाज-सुधार, भक्ति, दर्शन और लोकसंस्कृति के अनमोल रत्न हैं। उनके साहित्य में जीवन के यथार्थ और आदर्शों का सुंदर समन्वय देखने को मिलता है। उनकी रचनाएँ न केवल मनोरंजन करती हैं, बल्कि ज्ञान और प्रेरणा भी प्रदान करती हैं।

उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं:

  • "मम प्रिया सीताशरण रचनावली" (2013): यह उनकी कविताओं का पहला संग्रह है, जिसका विमोचन माननीय अजय सिंह "राहुल भैया" और स्व. इन्द्रजीत कुमार जी की उपस्थिति में हुआ, और जिसने साहित्य जगत में अपनी अमिट छाप छोड़ी। इस कृति के प्रकाशन के संबंध में उनका कहना था, “मातृभाषा के प्रति अनुराग और श्रद्धा समाज की सांस्कृतिक पहचान है। हिंदी देश की भाषा है। मातृभाषा उसी का अंग है। मातृभाषा के प्रति अनुराग होना ही, इसे बढ़ावा देना है। बघेली अपनी मातृभाषा है। इसलिए बघेली भाषा में कविता सृजन किया।"
  • "भाव-चन्द्रिका" (2017): यह उनकी कविताओं का दूसरा संग्रह है, जिसमें बघेली भाषा का सौंदर्य और लोक-संस्कृति की झलक मिलती है, और जो उनकी साहित्यिक प्रतिभा का उत्कृष्ट उदाहरण है। इस पुस्तक को प्रकाशित कराने की प्रेरणा उन्हें श्रद्धेय पं. रामभुवन जी शुक्ल प्राचार्य रजडिहा एवं सुहृदानुकूल कुटुम्बजनों की प्रबल अभिलाषा से मिली।

उन्होंने अपनी साहित्यिक यात्रा के बारे में बताते हुए कहा, "सौरभ स्वजन मनोज अरू, राम भुवन श्रद्धेय। करते उत्साहित मुझे, निजी मनोवल देय।। निजी मनोवल देय, दिनेशी भाव प्रसारी। समझा भावुक भाव, लिखन मति के अनुसारी। सीता जन सदभाव, देखि का बढ़िगा गौरव । प्रेरकन का उत्साह, बिखेरी पुस्तक सौरभ । पुस्तक रूप देना काम इस कार्य को प्रिय मनो इनके श्रम साध्य प्रयास र्च के लिए उनकी हृदय में कब तक कृतफल भुगतन ऐसी दशा में कविताओ था प्रबुद्धजनों तक पहुँच कृपा मानता हूँ।"

उनकी रचना "भाव- चन्द्रिका" के बारे में यह भी कहा गया, "यह कविता संग्रह 'भाव-चंद्रिका' उनका द्वितीय काव्य पुष्प है। इस संग्रह की कविताओं की विषय वस्तु व्यापक क्षेत्रों से चयनित है। इसमें एक ओर रामकथा के मार्मिक एवं संवेदनशील प्रसंग, धनुष यज्ञ, सीतास्वयंबर, राम-सीता विवाह, राम वनवास, भारत की ग्लानि, सीता खोज, अंगद रावण संवाद एवं लंका दहन का व्यापक एवं मार्मिक वर्णन है तो दूसरी ओर कृष्ण कथा से टक्कर एवं सामाजिक

तथा समसामयिक विषयों पर भी उनकी गहरी पकड़ दिखती है।"

आस-पास के लोग आपको 'मास्टर साहब' के प्रिय सम्बोधन से सम्बोधित करते हैं। श्री सीता शरण सिंह चौहान का प्रथम कविता संग्रह 'मम प्रिय सीता शरण रचनावली' नाम से सन 2013 में भार्गव ऑफसेट प्रेस, प्रयाराज से प्रकाशित हुआ।

उनकी रचनाओं में काव्य सौंदर्य देखते ही बनता था, जिसमें अनुप्रास, यमक, श्लेष, उपमा, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का सहज और स्वाभाविक प्रयोग होता था। यमक और श्लेष अलंकार के प्रति उनका विशेष अनुराग था। 'भाव-चन्द्रिका' में 'यमक दोहावली' शीर्षक से 116 दोहे हैं, जिनमें यमक अलंकार का उच्चकोटि का समावेश है।

अनुप्रास का उदाहरण:

"आवत सुनि के भरत का, भूषन बसन बनाई। कंचन थाली आरती की, शुभ साज सजाइ।।"

यमक का उदाहरण:

"गारी से गुस्सा मिले, गारी से आनन्द। दोनों हैं इस सभा में, जो हो तुम्हें पसन्द।।"

श्लेष का उदाहरण:

"पानी राखत तीन हैं, मोती मानव चून। सीता होते विलग ही, बन जाते हैं ऊन।।"

"भाव-चन्द्रिका" की भाषा बघेली हिन्दी है, जिसमें बघेली भाषा का माधुर्य और हिन्दी की गरिमा का संगम है। उनकी भाषा सर्व विषय एवं प्रसंग के अनुरूप सरल, प्रवाह पूर्ण एवं गंभीर होती थी।

बघेली भाषा का अमर सेनानी: भाषाई अस्मिता के प्रतीक

बघेली भाषा के प्रति उनका समर्पण अद्वितीय था। (यहाँ से, मैं पूर्व में दिए गए अंशों को संक्षिप्त रूप में समाहित कर रहा हूँ, ताकि समग्रता बनी रहे) उन्होंने बघेली को न केवल एक भाषा के रूप में देखा, बल्कि उसे अपनी अस्मिता और संस्कृति का प्रतीक माना। उन्होंने बघेली भाषा के संरक्षण और संवर्धन के लिए अथक प्रयास किए, और अपनी रचनाओं के माध्यम से इसे राष्ट्रीय पहचान दिलाने का प्रयास किया।

समाजसेवा: जन-जन के लिए समर्पित जीवन – एक सच्चे कर्मयोगी

श्री चौहान जी शिक्षा और साहित्य के साथ-साथ समाजसेवा में भी सक्रिय रहे। (संक्षिप्त पुनरावृत्ति) वे ग्राम पंचायत के सम्मानित सलाहकार थे, गरीबों और असहायों के रक्षक थे, सामाजिक सद्भाव और समानता के प्रबल समर्थक थे, और पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूक थे। उनकी निष्ठा, सरलता और न्यायप्रियता के कारण वे पूरे क्षेत्र में "मास्टर साहब" के नाम से श्रद्धापूर्वक सम्मानित किए जाते थे।

शोक संतप्त परिवार के प्रति संवेदना

उनके महाप्रयाण से उनके सुपुत्र श्री धीरेन्द्र प्रताप सिंह जी (प्राचार्य, शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, पड़री, जिला सीधी) सहित समस्त परिवार एक असीम वेदना के दौर से गुजर रहा है। यह न केवल व्यक्तिगत क्षति है, अपितु संस्कृति, समाज और शिक्षा जगत की एक अपूरणीय क्षति है। हम श्री धीरेन्द्र प्रताप सिंह जी एवं समस्त परिवार के प्रति अपनी गहन संवेदनाएँ व्यक्त करते हैं।

युगांतरकारी विचारधारा का प्रस्थान, किंतु अमर प्रेरणा का स्रोत

श्रद्धेय सीताशरण सिंह चौहान जी का जीवन एक विचारधारा, एक दर्शन और एक युग का प्रतीक था। उनकी विदाई से साहित्य और संस्कृति की अमर वाणी को क्षति पहुँची है, परंतु उनका योगदान चिरस्थायी रहेगा।

एक युग का अंत, एक अमर विरासत

श्री सीताशरण सिंह चौहान जी का निधन एक युग का अंत है। उनकी रचनाएँ, उनकी शिक्षाएँ और उनका समाजसेवा का अटूट संकल्प युगों तक जीवित रहेंगे।

मैं, आचार्य आशीष मिश्र (अतिथि शिक्षक, संस्कृत, शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, पड़री, जिला सीधी), उनकी पावन स्मृति में श्रद्धासुमन अर्पित करता हूँ और ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि वे उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें।

"अलख जगाए चल दिए, दीप बना जलाए। माटी में मिलके मगर, अमर नाम कराए।"

ॐ शांति: शांति: शांति:

आचार्य आशीष मिश्र

(अतिथि शिक्षक, संस्कृत)

शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, पड़री, जिला सीधी

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